लुइस का असीमित श्रम पूर्ति का सिद्धांत कृषि क्षेत्र के विकास का संतोषजनक विश्लेषण प्रस्तुत करने में विफल रहा इस समस्या के समाधान हेतु John C. H. Fei तथा G. Rani’s आगे आए और उन्होंने अपने लेख ‘द थ्योरी ऑफ इकोनॉमिक्स डेवलपमेंट’ के माध्यम से लुईस के सिद्धांत में व्याप्त कमियों को सुधारने का प्रयास किया।
उन दोनों ने अपने विश्लेषण में यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि संक्रमण क्रिया प्रक्रिया में एक विकासशील अर्थव्यवस्था गतिहीन की स्थिति में आत्मजनित वृद्धि की ओर जाने का प्रयास करती है।
लुईस के मॉडल की ही भांति फाई–रेनिस भी श्रम अतिरेक वाली अल्पविकसित अर्थव्यवस्था की कल्पना करते हैं दोहरी अर्थव्यवस्था में जहां प्रमुख व्यवसाय कृषि के साथ-साथ उद्योगों का भी अस्तित्व विद्यमान रहता है।
जैसे जैसे आर्थिक विकास होता जाता है औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन तथा रोजगार की मात्रा बढ़ती जाती है तथा आर्थिक विकास की समस्याओं का केंद्र बिंदु धीरे-धीरे कृषि क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र की और गतिशील होता है
फाई–रेनिस का सिद्धांत
फाई रेनिस का सिद्धांत एक अल्पविकसित श्रम अतिरेक अर्थव्यवस्था से संबंधित है जिसमें जनसंख्या का एक बड़ा भाग पारंपरिक व्याख्या कृषि क्षेत्र में कार्यरत है यह कृषि अर्थव्यवस्था पिछड़ी तथा गति हीन है निसंदेह अर्थव्यवस्था में गैर–कृषि क्षेत्र का भी अस्तित्व है परंतु उसमें पूंजी विनियोग की मात्रा सीमित है।
विकास की प्रक्रिया में अतिरेक कृषि श्रमिकों का जिनका कृषि उत्पादन में योगदान शून्य अथवा नगण्य होता है का पुनर्वितरण औद्योगिक क्षेत्र की ओर से होता है कृषि क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र की तरह उत्पादक तभी कहा जाएगा जब कृषि क्षेत्र में मजदूरी संस्थागत मजदूरी के समतुल्य हो जाएगी।
मान्यताएं
आर्थिक विकास के अन्य सिद्धांतों की ही भांति फाई–रेनिस का मॉडल भी निम्न मान्यताओं के अधीन कार्य करता है
इस मॉडल में दोहरी अर्थव्यवस्था की कल्पना की गई है जिसका एक भाग सक्रिय उद्योगिक क्षेत्र है तथा दूसरा भाग परंपरागत तथा गतिहीन कृषि क्षेत्र है।
भूमि की पूर्ति स्थिर है जनसंख्या वृद्धि एक बहिर्जात तत्व है।
कृषि क्षेत्र का उत्पादन केवल भूमि तथा श्रम का फलन है।
भूमि के सुधार के अतिरिक्त कृषि में पूंजी का संचय नहीं होता।
यदि जनसंख्या उस मात्रा से अधिक होती है जहां श्रम की सीमांत उत्पादकता शून्य बन जाती है तो श्रम को कृषि उत्पादन में हानि के बिना औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित किया जा सकता है
औद्योगिक क्षेत्र का उत्पादन केवल श्रम तथा पूंजी का फलन है उत्पादन के साधन के रूप में भूमि की कोई भूमिका नहीं है।
दोनों क्षेत्रों के श्रमिक केवल कृषि वस्तुओं का उपयोग करते हैं।
कृषि कार्य में पैमाने के स्थिर प्रतिफल पाए जाते हैं।
जिनमें औद्योगिक श्रम एक परिवर्तनशील साधन है।
औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरी स्थिर रहती है।
स्थैतिक तथा प्रावैगिक विश्लेषण में अंतर
अपूर्ण प्रतियोगिता/कीमत नेतृत्व मॉडल/imperfect competition
उपयुक्त मान्यताओं के आधार पर फाई–रेनिस श्रम अतिरेक अर्थव्यवस्था के विकास को निम्न तीन अवस्थाओं में प्रस्तुत करते हैं–
प्रथम अवस्था में अदृश्य बेरोजगारी श्रमिकों को जो कृषि उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं करते सहजता से संस्थागत मजदूरी दर पर औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
द्वितीय अवस्था में कृषि श्रमिक जो कृषि उत्पादन में वृद्धि तो करते हैं परंतु उस संस्थागत मजदूरी से कम उत्पादन करते हैं जो वे प्राप्त करते हैं इस तरह के श्रमिकों को भी औद्योगिक क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
तृतीय अवस्था यदि श्रमिकों का औद्योगिक क्षेत्र में इसी तरह निरंतर स्थानांतरण किया जाता है तो अंततः एक ऐसी स्थिति आती है जब कृषि श्रमिक संस्थागत मजदूरी के बराबर उत्पादन करने लगते हैं इसी से तृतीय अवस्था का प्रारंभ होता है यह उत्कर्ष की अंतिम स्थिति तथा आत्मजनक विधि का प्रारंभ है।
इस अवस्था में कृषि श्रमिक संस्थागत मजदूरी से अधिक उत्पादन करने लगते हैं।
अन्य शब्दों में इस अवस्था में श्रम अतिरेक समाप्त हो जाता है तथा कृषि का व्यापारीकरण हो जाता है।
फाई–रेनिस प्रथम तथा द्वितीय अवस्था के बीच की सीमा को दुर्लभता बिंदु कहते हैं क्योंकि इस अवस्था की उत्पत्ति अतिरिक्त कृषि श्रमिक के समाप्त हो जाने के कारण होती है वास्तव में इसी बिंदु को लुईस मॉडल में लुईस टर्निंग प्वाइंट कहा गया है।
द्वितीय अवस्था तथा तृतीय अवस्था के बीच की सीमा व्यापारीकरण बिंदु है जो कि कृषि में संस्थागत मजदूरी तथा MPP के बीच समानता के प्रारंभ को प्रकट करता है। फाई–रेनिस के अनुसार व्यापारीकरण बिंदु विकास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण अवस्था है व्यापारीकरण बिंदु पर औद्योगिक मजदूरों की वृद्धि तीव्र होती है।
आलोचना–
फाई–रेनिस के सिद्धांत की प्रमुख आलोचनाएं निम्नलिखित हैं–
भूमि की पूर्ति स्थिर नहीं होती सीमांत भौतिक उत्पादकता शून्य नहीं होती है।
बंद अर्थव्यवस्था की धारणा पर आधारित है।
संस्थागत मजदूरी सीमांत भौतिक उत्पादकता से अधिक नहीं होती है।
पूंजी की भूमिका की उपेक्षा की गई है।
कृषि का व्यापारी करण स्फीतिजनिक होता है ऐसा मानना है इन लोगों का।